यह स्तम्भ एक प्रयास है, अपनी कुछ अनुदित रचनाओं को स्वजनों तक पहुचाने का...
आपकी टिप्पड़ियां अपेक्षित हैं, जो इस सफ़र में मेरी मार्गदर्शक होंगी ...

Sunday, July 18, 2010

एक अनजान शहर और मै

फिर से एक जख्म रिसता सा लगता है |
इस शहर से कोई रिश्ता सा लगता है |
ऊपर से हम साबुत से लगते हैं |
भीतर ही भीतर कुछ पिसता सा लगता है |

1 comment:

  1. Bhai ..yeh chiz....US mein tu maan hi maan bolne wala hai .. Jai ho - Guru

    ReplyDelete