जाने कैसी मजबूरी है, उसी को भुलाना पड़ रहा है ....
यादों को तो मिटा नहीं सकता, ख़त जलाना पड़ रहा है ...
दर्द ऐसा है, सबको दिखा भी नहीं सकता ....
जहाँ पे आंसू आकर थम गए हैं, वही से मुस्कुराना पड़ रहा है ...
उससे दूर न रह पाने की कुछ ऐसी बेबसी है ...
जहाँ पे दफ्न कर दिया माझी, वही पे घर बनाना पड़ रहा है...
बहाने याद थे बहुत मुझको मगर ...
न जाने कैसा भोलापन है उन आखों में, बहुत छोटा बहाना पड़ रहा है .....
एक अरसा हुआ है खुद से बात किये... कुछ बातें दिल ही दिल में बढती चली गई. सोचा कि उन अफ़सानों को रेशमी लिबास में आप तक भेजूंगा मगर ये हो ना सका. कुछ मेरी खराबियां मुझी को डसती गई. ये किस्सा थोड़ा सा लम्बा है. कई टुकड़ों में आप के लिए प्रस्तुत करना मजबूरी है. संभव है कि मेरे कमेन्ट बहार का काम करें और ये फलता फूलता जाये.फिर भी हाजिर है.
ReplyDeleteअति उत्तम प्रशांत बाबु .. अमेरिका मैं यही शेर सुनाना .. मतलब समझाते हुए कब वक़्त गुजर जायेगा की पता ही नहीं चलेगा
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