यह स्तम्भ एक प्रयास है, अपनी कुछ अनुदित रचनाओं को स्वजनों तक पहुचाने का...
आपकी टिप्पड़ियां अपेक्षित हैं, जो इस सफ़र में मेरी मार्गदर्शक होंगी ...

Thursday, November 21, 2013

तुमसे बिछड़ के, इतना तो जरूर लगता है |
कि सारा जहाँ बेनूर लगता है ||

कल रात ख्वाब में देखा था, शायद तुझको |
हल्का हल्का अभी तक सुरूर लगता है ||

बड़ी बेतरतीब थी जिंदगी, तेरे आने से पहले |
जीने का आया अब, सऊर लगता है ||

मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, मगर |
तू मुझे जन्नत क़ी हूर लगता है ||

Sunday, July 18, 2010

एक पुराना मौसम लौटा

जाने कैसी मजबूरी है, उसी को भुलाना पड़ रहा है ....
यादों को तो मिटा नहीं सकता, ख़त जलाना पड़ रहा  है ...

दर्द ऐसा है, सबको दिखा भी नहीं सकता ....
जहाँ पे आंसू आकर थम गए हैं, वही से मुस्कुराना पड़ रहा है ...

उससे दूर न रह पाने की कुछ ऐसी बेबसी है ...
जहाँ पे दफ्न कर दिया माझी, वही पे घर बनाना पड़ रहा है...

बहाने याद थे बहुत मुझको मगर  ...
न जाने कैसा भोलापन है उन आखों में, बहुत छोटा बहाना पड़ रहा है .....

प्यार जिंदगी और गम

अगर जिंदगी में गम नहीं होते |
तो शायद हम हम नहीं होते |
ये माना की कहानी अधूरी रह गयी |
लकिन प्यार के दो पल भी कम नहीं होते |

एक अनजान शहर और मै

फिर से एक जख्म रिसता सा लगता है |
इस शहर से कोई रिश्ता सा लगता है |
ऊपर से हम साबुत से लगते हैं |
भीतर ही भीतर कुछ पिसता सा लगता है |