यह स्तम्भ एक प्रयास है, अपनी कुछ अनुदित रचनाओं को स्वजनों तक पहुचाने का...
आपकी टिप्पड़ियां अपेक्षित हैं, जो इस सफ़र में मेरी मार्गदर्शक होंगी ...

Thursday, November 21, 2013

तुमसे बिछड़ के, इतना तो जरूर लगता है |
कि सारा जहाँ बेनूर लगता है ||

कल रात ख्वाब में देखा था, शायद तुझको |
हल्का हल्का अभी तक सुरूर लगता है ||

बड़ी बेतरतीब थी जिंदगी, तेरे आने से पहले |
जीने का आया अब, सऊर लगता है ||

मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, मगर |
तू मुझे जन्नत क़ी हूर लगता है ||